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आ त्वा॑ वहन्तु॒ हर॑यो॒ वृष॑णं॒ सोम॑पीतये। इन्द्र॑ त्वा॒ सूर॑चक्षसः॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ā tvā vahantu harayo vṛṣaṇaṁ somapītaye | indra tvā sūracakṣasaḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

आ। त्वा॒। व॒ह॒न्तु॒। हर॑यः। वृष॑णम्। सोम॑ऽपीतये। इन्द्र॑। त्वा॒। सूर॑ऽचक्षसः॥

ऋग्वेद » मण्डल:1» सूक्त:16» मन्त्र:1 | अष्टक:1» अध्याय:1» वर्ग:30» मन्त्र:1 | मण्डल:1» अनुवाक:4» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-

पदार्थान्वयभाषाः - हे (इन्द्र) विद्वन् ! जिस (वृषणम्) वर्षा करनेहारे सूर्य्यलोक को (सोमपीतये) जिस व्यवहार में सोम अर्थात् ओषधियों के अर्क खिंचे हुए पदार्थों का पान किया जाता है, उसके लिये (सूरचक्षसः) जिनका सूर्य्य में दर्शन होता है, (हरयः) हरण करनेहारे किरण प्राप्त करते हैं, (त्वा) उसको तू भी प्राप्त हो, जिसको सब कारीगर लोग प्राप्त होते हैं, उसको सब मनुष्य (आवहन्तु) प्राप्त हों। हे मनुष्यो ! जिसको हम लोग जानते हैं (त्वा) उसको तुम भी जानो॥१॥
भावार्थभाषाः - जो सूर्य्य की प्रत्यक्ष दीप्ति सब रसों के हरने सबका प्रकाश करने तथा वर्षा करनेवाली हैं, वे यथायोग्य अनुकूलता के साथ सेवन करने से मनुष्यों को उत्तम-उत्तम सुख देती हैं॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

तत्रेन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।

अन्वय:

हे इन्द्र ! यं वृषणं सोमपीतये सूरचक्षसो हरयः सर्वतो वहन्ति त्वा तं त्वमपि वह, यं सर्वे शिल्पिनो वहन्ति तं सर्वे वहन्तु, हे मनुष्या ! यं वयं विजानीमस्त्वा तं यूयमपि विजानीत॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (आ) समन्तात् (त्वा) तं सूर्य्यलोकम् (वहन्तु) प्रापयन्तु (हरयः) हरन्ति ये ते किरणाः। हृपिषिरुहि० (उणा०४.१२४) इति ‘हृ’धातोरिन् प्रत्ययः (वृषणम्) यो वर्षति जलं स वृषा तम्। कनिन्युवृषि० (उणा०१.१५४) इति कनिन् प्रत्ययः। वा षपूर्वस्य निगमे। (अष्टा०६.४.९) इति विकल्पाद् दीर्घाभावः। (सोमपीतये) सोमानां सुतानां पदार्थानां पीतिः पानं यस्मिन् व्यवहारे तस्मै। अत्र सह सुपा इति समासः। (इन्द्र) विद्वन् (त्वा) तं पूर्वोक्तम् (सूरचक्षसः) सूरे सूर्य्ये चक्षांसि दर्शनानि येषां ते॥१॥
भावार्थभाषाः - याः सूर्य्यस्य दीप्तयस्ताः सर्वरसाहारकाः सर्वस्य प्रकाशिका वृष्टिकराः सन्ति ता यथायोग्यमानुकूल्येन मनुष्यैः सेविता उत्तमानि सुखानि जनयन्तीति॥१॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)

ऋतूचे संपादक जे सूर्य व वायू इत्यादी पदार्थ आहेत, त्यांच्या यथायोग्य प्रतिपादनाने सोळाव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्वीच्या पंधराव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.

भावार्थभाषाः - जी सूर्याची दीप्ती (किरणे) सर्व रसांना खेचून सर्वांचा प्रकाश करणारी व वृष्टी करविणारी आहेत, त्यांचे अनुकूलतेने सेवन केल्यास ती माणसांना उत्तम सुख देतात. ॥ १ ॥