आ त्वा॑ वहन्तु॒ हर॑यो॒ वृष॑णं॒ सोम॑पीतये। इन्द्र॑ त्वा॒ सूर॑चक्षसः॥
ā tvā vahantu harayo vṛṣaṇaṁ somapītaye | indra tvā sūracakṣasaḥ ||
आ। त्वा॒। व॒ह॒न्तु॒। हर॑यः। वृष॑णम्। सोम॑ऽपीतये। इन्द्र॑। त्वा॒। सूर॑ऽचक्षसः॥
स्वामी दयानन्द सरस्वती
अब सोलहवें सूक्त का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में सूर्य्य के गुणों का उपदेश किया है-
स्वामी दयानन्द सरस्वती
तत्रेन्द्रगुणा उपदिश्यन्ते।
हे इन्द्र ! यं वृषणं सोमपीतये सूरचक्षसो हरयः सर्वतो वहन्ति त्वा तं त्वमपि वह, यं सर्वे शिल्पिनो वहन्ति तं सर्वे वहन्तु, हे मनुष्या ! यं वयं विजानीमस्त्वा तं यूयमपि विजानीत॥१॥
माता सविता जोशी
(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)ऋतूचे संपादक जे सूर्य व वायू इत्यादी पदार्थ आहेत, त्यांच्या यथायोग्य प्रतिपादनाने सोळाव्या सूक्ताच्या अर्थाबरोबर पूर्वीच्या पंधराव्या सूक्ताच्या अर्थाची संगती जाणली पाहिजे.